उच्च न्यायालय ने प्रत्यक्ष देखा भ्रष्टाचार का नंगा नाच ,न्यायालय मजबूर होकर प्रशासन को अपनी औकात बताई ,क्या उसे ऐसा करना चाहिए था ? क्या न्यायालय ने भ्रष्टाचार रोकने में असफल होने के कारण ऐसा किया ? जब देश में संविधान के अनुसार कुछ भी नहीं चल रहा है दूसरी ओर संशोधन द्वारा संविधान की आत्मा तो कब की मर चुकी है ।
मुझे याद है जब छत्तीसगढ में प्रथम उच्च न्यायालय का उद्घाटन हुआ था ,बिलासपुर शहर को तब कबाड़ खाना के अतिरिक्त कुछ कहना प्रतीत नहीं होता ,सड़कों का हाल तो देखकर रोना आता था ,नाली ,पानी की व्यवस्था ,साफ -सफाई केवल खाना पूर्ति के लिए होता था ,शहर के जागरूक नागरिकों ने तब उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर शासन - प्रशासन के खिलाफ कार्यावाही करने का निवेदन किया था ।
उच्च न्यायालय ने जनहित याचिका पर अविलम्ब सुनवाई करते हुए कहा कि- जनता किस बात के लिए कर देती हैं ? यदि नागरिकों को मुलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति न हो सकें ,तो क्या सरकार को कर देना उचित है ?
मैंने न्यायालय द्वारा इस तरह की टिप्पणी की कल्पना ही नहीं कर सकता था ,अब प्रश्न यह उठता है कि जब देश में चारों और अराजकता हैं ,शासन प्रशासन जनता द्वारा दिया गया, कर के रूप में प्राप्त राजस्व को सही इस्तेमाल नहीं करके ,इस राजस्व से नेताओं और आफसर को ता-ता,धि न्ना ,करने की आदत पड़ गई हैं ,अत: क्यों न हम कर देना ही बन्द कर दें ?
कर न देना अपने आप में अपराध हैं ,लेकिन जब कर का इस्तेमाल गलत लोग करने लगे हैं तो ऐसा करना कोई अपराध नहीं है ... क्या सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर इस पर बहस का सिलसिला जारी रखना चाहिए ? जो सक्षम ब्लोगर बन्धु कुछ आर्थिक सहयोग याचिका हेतु देना चाहे तो आगे आकर इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए एक पहल करने में क्या हम सक्षम हैं ?
यदि हॉं तो कैसे ?
मैं आशा करता हूँ कि सभी जागरूक ब्लोगर बन्धु एवं पाठकगण इस सामाजिक कठोर निर्णय पर अपना मत और टिप्पणी अवश्य दें ।
मंगलवार, 10 नवंबर 2009
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