सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

झोपडिओं के कुत्ते स्लमडॉग, आस्कर अवार्ड के टुकड़े खाओ

अंग्रेजों ने भारतीयों को काले कुत्ते कह कर सम्बोधित करते थे ,हम चुप-चाप सहते रहे ,क्योंकि हम गुलाम थे ,हम मजबुर थे ,स्वाभिमान टुट चुका था, और जब अन्याय सहते सहते तंग आ चुके थे तो विरोध का स्वर सुनाई देने लगे ,आवाज आया भारतीय कुत्ते नहीं पर दुनियॉं को राह दिखाने वाले जगत गुरू हैं ,स्वाभिमान जागृत हुआ ,अंग्रेजों को देश छोडना पडा ,आज हम आजाद हैं ,देश के भाग्यविधाता भारतवासी दुनियॉं में किसी भी रूप से कमजोर नहीं हैं ,लेकिन हम एक बार फिर अपने आप को भुलने लगे हैं ,कुत्तों को सोने की जेजीरों से बाँध कर यदि उपहार स्वरूप खुब अच्छा खाना खिलाया जाय तो स्वामी भक्ति और अधिक बढ जाती हैं। यदि झोपडियों मे रहने वाले कुत्ते को ऑक्सर से नवाजा जाए वह भी ब्रिटेन द्वारा निर्मित फिल्म के लिए ,हम उन्हें बधाई दे कि आपने झोपडियों में रहने वाले मुम्बई के कुत्तों को जो सम्मान दिया हैं उस लिए राष्ट्र कृतज्ञ हैं ! आज भी अंग्रेज हमें हरामखोर कहें ,कुत्तें कहें ओर ईनाम दिला दे ,तो दुम हिलाते हुए उसका हम गुनगाण करने लगते हैं ,देश के पत्रकार ,मिडिया भी चुप ,ऐसे अवार्ड लेने से मर जाना अच्छा है। कला चाहे कितने ही श्रेष्ठ हो, यदि कला का अपमान हो रहा हो और उससे राष्ट्रीय स्वभिमान आहत हो रहा हैं तो कोई भी अवार्ड हमारे नजर मे तुच्छ होना चाहिए ,तुरन्त वापस कर देना चाहिए इस तरह की अवार्ड ,एक -एक करके 8 ऑक्सर मिलना जैसे कुत्तों के सामने बारी बारी से 8 रोटी के टुकडे डालने के समान है ,ऐसी टेकडों में पलने वाले लोग यदि इस देश में पैदा हो गए हैं तो आगे इस देश का मालिक कौन होगा इस चिन्ता से मैं बहुत दु:खी हूँ, आक्रोशित हूँ ,आहत हूँ । अंग्रेज दुनियॉ के सामने यह साबित करने के लिए सफल हो गए कि इण्डियन आज भी स्लम डॉग यानि झोपडियों के कुत्ते के सिवाय कुछ भी नहीं हैं । यह फिल्म भी सोची समझी षडयंत्र के तहत बनाई गई हैं ,भारत को नीचा दिखाने के लिए एक साजिश के अलावा यह कुछ भी नहीं हैं क्या इस फिल्म का नाम झोपडी का शेर नहीं रखा जा सकता था ? स्लम लायन भी तो अच्छा नाम हो सकता था पर स्लम डॉग !!!!!!!!!

सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

मेरा देश भारतवर्ष, हिंदूस्थान नहीं

काव्य ,महाकाव्य को छोडकर एक भी धार्मिक ग्रन्थ नहीं हैं जिसमें जाति प्रथा का उल्लेख है ,सच कहूँ तो भारत को लोगों ने कब हिन्दुस्थान बना दिया पता ही नहीं लगा और आज तक इसे हिन्दुस्थान बनाए रखने का जीतोड मेहनत किया जा रहा हैं । भारतवर्ष का नाम शकुन्तला -दुश्यन्त के पुत्र से प्रचलित हुआ ,बहादुर और न्यायप्रिय भरत में जो गुण हमें दिखता हैं हिन्दुस्थान शव्द में उस गुण का सर्वथा अभाव है। इतिहास में उल्लेख हैं कि सप्त सिन्धु पार करके आर्य हमारे देश में आए थे ,सिन्धु नदी आज पाकिस्थान में है देश के नलायक नेताओं ने अंग्रेजों के साथ मिलकर भारत माता को टुकडों में वॉट दिया ,एक टुकडे का नाम पाकिस्थान और दूसरे का नाम हिन्दुस्थान रखकर इतिहास को ही तोड मरोड कर लोगों के सामने रखने का दु:स्साहस किया हैं ,दुर्भाग्य से गान्धीजी और नहरू भी इस समय साक्षी स्वरूप जीवित थे , कुल मिलाकर हिन्दुस्थान ,पाकिस्थान भारतवर्ष ही हैं, आर्यों का उच्चारण स के स्थान पर ह होता था, आज भी बहुत लोग र के स्थान पर ल बोलते हैं ,इसितरह की उच्चारण में गलती के कारण सिन्धु को आर्यों ने हिन्दु कहना शुरू कर दिया था और यहाँ रहने वालों को आगे चल कर हिन्दुस्थानी कहने लगे ,हिन्दु शब्द को आर्यों ने कभी जाति वाचक के रूप में नहीं लिया , स्थान विशेष के लिए इस शब्द का उपयोग किया जाता रहा है । धार्मिक और कर्मकाण्ड के समय हिन्दुस्थान का उल्लेख कहीं नहीं मिलता हैं ,आर्य कभी भारतवर्ष को हिन्दुस्थान बनाने का प्रयत्न नहीं किया ,अत: हमें हिन्दुस्थानी या हिन्दु न कह कर भारतवासी और भारत कहना ज्यादा उपयुक्त होगा ।
हमने रामायण को रामायना ,कृष्ण को कृष्णा ,महाभारत को महाभारता ,योग को योगा बना कर चुप चाप तमाशा देख रहे हैं ,आगे जाकर मौलिक नाम को सिद्ध करना भी हमारे लिए असंभव सा हो जायेगा ,शिक्षकों को जागरूक रहना आवश्यक हैं, जिन्होंने भारत को हिन्दुस्थान बनाने के लिए षडयंत्र रचा ,उन्होंने ही हिन्दु को जातियों में बाटने का साजिश किया हैं ,प्राचीन भारत में हमें कहीं इसाई नजर नहीं आते थे ,और न ही मुसलमान और पारसीं मिलता था ,प्राचीन धर्म ग्रन्थें में गीता सर्वमान्य मिलेगा ,रामायण एक महाकाव्य हैं इसे किसी भी तरह से धार्मिक ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता हैं' जिस तरह से मुस्लिम यह मान कर चलते हैं कि कुरान का वाणी आकाश से उतरा हैं और वह ईश्वर का वाणी हैं ,उसी तरह गीता में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने जो कुछ कहा वह देव वाणी हैं ,उसे किसी ने लिखा नहीं हैं परन्तु भगवान ने कहा हैं, इसलिए भारत में गीता ही ईश्वर वाणी हैं अन्य सभी काव्य अथवा महा-काव्य हैं । गीता में जो भी लिखा हैं वह मानव और प्राणीयों के लिए कल्याण कारी हैं इसलिए गीता का उपदेश को पालन करना ही धार्मिक कर्म हैं , भारत में रहने वाले सभी को इस धर्म का पालन करना आवश्यक हो सकता हैं , यह कानून से भी उपर हैं, कानून तो हमने बनाया हैं और गीता ईश्वर ने ,ईश्वर के नियम से उपर कोई भी नियम आमान्य योग्य हैं ,अब हमें देखना हैं कि यह वाणी क्या मात्र किसी सम्प्रदाय विशेष के लिए या कौम विशेष के लिए दिया गया हैं ? गीता के 700 श्लोकों में यह नही बताया कि यह वाणी हिन्दुओं के लिए हैं, कारण उस समय हिन्दु शब्द कोई जानते ही नहीं थे ,चूंकि भगवान श्री कृष्ण का जन्म भारतवर्ष में हुआ था अत: भारत में रहने वालों को गीता आवश्यक रूप से मानना चाहिए ,यदि कोई गीता में दिए गए उपदेशों का पालन नहीं करता, तो वह अधार्मिक है। उसे भारत वासी कहने का हक नहीं हैं ,चूंकि भारतीय ग्रन्थ गीता है,औरइसमें ज्ञान का भण्डार के साथ ही साथ भगवान स्वयं कहते कि यदि कोई मेरे शरण में आता हैं तो मैं उसे मोक्ष देता हूँ ,मैं ही मोक्षदाता हूँ ,मैं ही उद्धारकर्ता हूँ अत: सब आडम्बरों को छोड मेरे पास आओ ,यदि भुत-प्रेतों का पूजा करोगे तो भुत -प्रेत जैसे हो जाओगे ,जड का चिन्तन करोगे तो जड हो जाओगे और मेरे पास आओगे तो मुझमे मिल जाओगे । श्री कृष्ण ने मुर्ति पूजा को जड कहा हैं अत: गीता मानने वालों को या भारतवासीयों को मुर्ति पूजा नहीं करना चाहिए । गीता में एक बात बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा गया हैं कि चार वर्णों का श्रृजन मेरे द्वारा किया गया हैं ,और यह वर्ण गुण एवं कर्म पर आधारित हैं ,इससे अधिक स्पस्ट बात और क्या हो सकता हैं ? गुण पर आधारित व्यवस्था को कुछ सिरफिरे लोगों ने, समाज विरोधी पागलों ने, जन्म पर आधारित जाति बना कर आज भी अपना उल्लु सीधा करता हैं ,जो जाति प्रथा को मान्यता देता हैं या मानता हैं वह भारत वासी कैसा हो सकता हैं? क्यों कि गीता को जो नहीं मानता वह पाखण्डी हैं । चुकि इस देश में मुस्लिम ,ईसाइ अनेक बाद मे आए हैं और अधिकांश अपना मूल धर्म को बदल दिया हैं ,देश के कानून मूल धर्म को बदलने का अधिकार कैसे दे सकती है ? जो सरकार जनता द्वारा बनाया हुआ हो ,वह सरकार ईश्वर प्रदत्त नियम को किस रूप में बदल सकता हैं ? और यह पाप कर्म अमान्य योग्य है ,इस देश के सभी लोग भारत वासी हैं चूँकि भारत का धार्मिक ग्रन्थ गीता हैं तो हर भारत वासी को गीता मानना जरूरी हैं, गीता के बाद कुछ भी माने, परन्तु भारतवासीयों को अपना मौलिकता कदापि नहीं छोडना चाहिए ,यह बात बताना आवश्यक है कि गीता मानने वाले हिन्दु नहीं वल्कि सभी भारत वासी कहलायेंगे ।
गीता के अनुसार जाति प्रथा मानना पाप कर्म हैं अत: भारत वासियों को उच- नीच पर आधारित जाति को मान्यता न देते हुए मानव धर्म पर आधारित समाज व्यवस्था बनाने मे तुरन्त आगे आना होगा , जाति प्रथा का विकृत रूप मुस्लिम सम्प्रदाय,ईसाइ आदी सभी में समा गया हैं अत: किसी भी सम्प्रदाय को जाति मानने का कोई अधिकार नहीं हैं ,सभी भारत वासियों को गीता पर आधारित समाज व्यवस्था बनाने के लिए आगे आना होगा ,संकुचित विचारधारा से परे हटकर अब देश बनाने के कार्य में जुट जाने का समय आ गया है यदि समय रहते लोग न चेते तो महाभारत का रास्ता भगवान श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित रास्ता अपनाना ही पडेगा, इसलिए धृतराष्ट्र और दुर्योधन जैसे पापी ही फिर कटघरे में खडे नजर आयेंगे ,गीता का अधिकाधिक प्रचार करना युग धर्म हैं आज रामायण का अधिक बोलबाला हैं रामायण अधिकार छोड जंगल प्रवास पर जोर देती हैं ,गीता अधिकार के लिए लडने की बात करती हैं अत: भारत में अधिकार की लडाई हर युग होता आया हैं ,इस देश में चन्द दुर्योधनों ने सभी साधनों पर अपना अधिकार जमा बैठा है दुर्योधन बिना युद्ध के कुछ भी देने को तैयार नहीं हैं इसलिए ऐसे लोग रामायण का अधिकाधिक प्रचार कर लोगो का ध्यान अधिकार से हटाने का कुटिल षडयंत्र रचा हैं, परन्तु श्रीकृष्ण के मामा विदुर भी हमेशा ऐसी परिस्थिति में मार्गदर्शक के रूप में सामने आते रहें हैं आज भी क्या यही सब होना बचा हैं ?

१०० प्रतिशत मतदान और रामदेव बाबा

सवाल 100 प्रतिशत मतदान का हैं ,अभी रामदेव बाबा ने भष्ट्राचार के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया हैं ,अन्ना हजारे ने तो चुनाव सुधार और भाष्ट्रचारी नेताओं को वापस बुलाने की मांग को लेकर बहुत सशक्त आन्दोलन चलाया ,फिर भी कोई भी आन्दोलन आज सफल होता नहीं दिख रहा हैं ,परन्तु आंशिक सफलता मिलने की उम्मीद से लोग इस तरह की आन्दोलन से जुड जाते हैं ,समाज में कुछ चेतना जागृत होती हैं ,कुछ लोग आंशिक सफलता से खुश भी हो जाते हैं,एक बार मैंने गायत्री परिवार के कार्यकलापों पर ध्यान केंद्रित किया था ,श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखे गये कुछ साहित्य का अध्ययन ही नहीं मनन भी किया ,उन्होंने एक छोटी पुस्तिका महाकाल का पुकार सुनो में सप्त क्रान्ति का सुन्दर विवरण प्रस्तुत करने के साथ -साथ यह भी लिखा कि युग सन्धी बेला में संघर्षात्मक काल से हम गुजर रहे हैं इस संघर्ष में यदि हमारे परिजन भय से आगे नहीं आते हैं तो वे मेरे परिजन कदापि नहीं हो सकते ,इसे मुर्त रूप देने के लिए युग निर्माणयोजना ,मथुरा के लीलापत जी से मेरी कई बार फोन पर बातचित हुई ,मैंने जब संघर्ष के बारे में पुछना शुरू किया तो वे मायुस हो कर बार-बार कहते थे कि आज हमारे परिजन संघर्ष के नाम से कतराते हैं,द्वीप प्रज्वलित कर यज्ञ में अधिक ध्यान दिया जा रहा है ,रचनात्मक कार्य में भी कम रूचि हैं पर यज्ञ,हवन ,आदी में सभी मस्त है ,इतनी स्पष्टवादिता मैंने बहुत कम देखा सुना हैं ,लीलापत जी आखरी समय तक संघर्ष के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते रहे एक बार तो मुझसे फोन में यह भी कहने लगे कि मै बुढापे में अन्याय के खिलाफ सडक की लडाई तक करने निकल जाता हूँ ,पर परिजन बहुत कम आते है,प्रश्न यह हैं कि इस तरह की स्थिति क्यों तैयार हो जाता हैं ?
नेताजी सुभाष जब तक संघर्ष के लिए बात नहीं करते थे तब तक कांग्रेस के लिए बहुत अच्छे थे ,जबसे अंग्रेजों के खिलाफ लडने की बातें करने लगे तब से बहुत खराब होते गए ,नौबत यहॉं तक आ गया कि कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें दल से निष्काषित कर दिए , दोबार कांग्रेस के अध्यक्ष होने के बाद भी संघर्ष के नाम से नेताजी उस समय के कांग्रेसियों के नजर मे खटकने लगे थें । सबकुछ पाने की चाहत तो हैं पर कुछ खोने की किंमत पर नहीं ,बीना संघर्ष के सबकुछ पाने का जो मजा उस समय के नेताओं ने प्राप्त किया था,आज तक उसी रास्ते में चलकर संघर्ष के रास्ते को बदनाम करने का षडयंत्र जारी हैं ,एक कहावत भी बन गया कि नेताजी,भगत बहुत अच्छे,पर मेरे घर में पैदा न होकर पडौसी के घर पैदा हो । क्या सम्पूर्ण क्रान्ति के पुरोधा लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जीवन के अन्तिम पडाव को हमने नहीं देखा ? अभी 1974 की तो बात हैं ,सभी विरोधी दलों को एकसूत्र में बाधकर जनता पार्टी बना देने की ताकत लोकनायक के अलावा और किसे प्राप्त था ?लालुप्रसाद ,मुलायमसिंह, राजनारायण आदी उसी सम्पूर्ण क्रान्ति का देन था ,स्वयं प्रधा मंत्री बन सकते थे, परन्तु देश के लिए सबकुछ त्याग करने वालों को सत्ता सुख तुच्छ लगता हैं,उन्होंनें मोरारजीभाई देसाई को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव रखा था जो ,सर्वसम्मति से पारित भी हुआ ।
एक बात तो स्पष्ट हो चुका हैं कि देश में स्वार्थी लोगों का एक जमात तैयार हो चुका है,ऐसे लोग पाना तो सब कुछ चाहते हैं पर देने के नाम से बहुत पीछे ,क्या ऐसे लोगों को मतदान करने का अधिकार देना उचित है ? मतदान तो देश प्रेमीयों को देने का अधिकार हैं और देश प्रेमी कोई भी हो सकता है;
एक खोज इस पर होना चाहिए ,बेईमान,भ्रष्ट्र ,चोर ,लुटेरे ,हत्यारों के मतदान से क्या देश को सही दिशा दिया जा सकता ?100 प्रतिशत मतदान करके भी क्या लाभ होगा ,जब तक लोगों को भरपेट भोजन उपलब्ध न हो ,रहने के लिए निवास नहो ,समुचित चिकित्सा की सुविधा न हो ,सुशिक्षा की व्यवस्था न हो ? एक भिखारी का मतदानसे देश का क्या भला हो सकता है ?एक शराबी ,एक नशेडी से देश के लिए क्या उम्मीद किया जा सकता हैं ? मतदान का जिसे अर्थ मालूम हो, जो मत को बेचता न हो , लोभ के कारण,भय के कारण ,मत का दूरपयोग न करता हो , जागरूक हो ऐसे चिन्तनशील
मतदाताओं द्वारा जिसे जिता कर प्रजातंत्र के प्रतितिधि के रूप में देश को प्रदान करेगा उससे देश तरक्की कर सकता हैं ,विकास कार्य में यही लोग निस्वार्थ भाव से सहयोगी बनेगा,उपयुक्त चुनाव ही प्रजातंत्र की सफलता का कुंजी हैं । अत: 100 प्रतिशत या 30 प्रतिशत कोई मायने नहीं रखता ,100 गिदड से एक शेर भला , आज तो जब तक जिम्मदार मतदाता देश में तैयार न हो जाए तब तक मतदान करने का अधिकार भी सिमीत लोगों को प्रदान करने का प्रावधान करना चाहिए,इस तरह की व्यवस्था को हम सीमित प्रजातंत्र कह सकते हैं । आज मैं बहुत ही चिन्तन मनन करके एक अच्छी उम्मीदवार को मत देता हूँ और उसी समय एक शराबी भी आकर नलायक को मतदान करता हैं ,ऐसी स्थिति में मेरा चिन्तन मनन करने का क्या अर्थ है ?मेरा मतदान का कोई अर्थ रह जाता हैं क्या ?मैं तब क्यों जाउ मतदान करने ?

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

पत्नी को जिन्दा जलाने का प्रथा और राजा राम मोहन रॉय

विधवा विवाह और राजा राम मोहन राय के एक सच्ची कहानी पढने के पश्चात उस कहानी को विश्वास करना असम्भव सा लगता हैं ,हमारे देश में अत्याचार के अनेक मिशाल देखने -सुनने को आज भी मिल जाएगा, नारी अत्याचार के बारे में सुनने से भी रोंगटे खडी हो जाती है। देश के कुछ भागों में डाईन ,टोहनी ,का आरोप लगाकर खुलेआम महिलाओं को डंडे से पिट-पिट कर मारडाला जाता हैं ,इस मारने के खेल को सही ठहराने के लिए तमाम दलीले भी दी जाती हैं ,लेकिन सति प्रथा का अन्त जिस तरह किया गया हैं वह अपने आप में एक मिशाल हैं । पति के मर जाने पर पत्नी को भी जीवित चिताग्नी में जला दिया जाता था ,बेमेल विवाह के पश्चात 80 साल के बुढे के साथ 12-13 साल की पत्नी को जीवित जला देना कौन सी धार्मिक कार्य था ,और जिन्होंने भी जिस परिस्थिति में भी इसे धार्मिक रूप दे दिया था ,वह अक्षम्य अपराधी हैं ,पापिश्ठ हैं ।
राजा राममोहन राय को भाभी बहुत प्यार करते थे ,हर छोटी -छोटी जरूरतों की पूर्ति का खयाल रखना उनके दिन चर्या का अंग था ,राजा राम मोहन राय भाभी के व्यवहार से बहुत प्रभावित थे ,किसी कार्य से राजा राम मोहन रॉय को इंग्लैण्ड जाना आवश्यक होने से भाभी ने विदेश जाने की सारी व्यवस्था अपने हाथ में ले ली थी ,निश्चित दिन को बोझिल दिल से राजा राम मोहन राय को विदा देने के कुछ दिनों के पश्चात बडे भाई का अचानक मृत्यु हो जाता हैं ,भाभी सति नहीं होना चाहती थी ,परन्तु उस समय के धर्म के ठेकेदारों ने भाभी को जिन्दा जलाने की पूरी तैयारी कर ली थी ,इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ भाभी हमेशा राजा राम मोहन राय को पूर्व से कहा करते थे ,परन्तु जब घर में इस तरह की परिस्थिति निर्मित हो गई तब वे विदेश में थे ,गॉव के लोगों ने नगाडें की आवाज में भाभी की चित्कार ,आर्तनाद ,को दबा दिया , जोर -जोर से नगाडे बजा कर घर से खिंचते हुए भाभी को चिता में बाध कर आग लगा दिया गया ,इस कृत से पूर्व, देवर के लिए एक पत्र भाभी ने लिखकर उनके कमरे में छोड दी थी ,असहाय अबला सी भाभी का आज कोई भी नहीं था , पति के देहान्त के साथ-साथ जीवित भाभी के अपने भी सब पराए हो गए थे ,चिता की आग जैसे -जैसे बढती जाती ,आर्तनाद भी बढते -बढते धीमी पड गई थी ,लोगों ने दूसरे दिन अस्थी के लिए चिता जला कर घर चले गए,दूसरे दिन जब दोनों के अस्थी खोजा गया तो एक अस्थी न मिलने से लोगों में चर्चा का विषय बन कर बात चारों ओर फैल जाने से फिर खोज बीन शुरू हो गया ,जहॉं चिता जलाया गया था ,उसके एक ओर कुछ झाडी थी अचानक लोगों का नजर उस झाडी में जाने के कारण उसमें खोजने पर अधजली भाभी जीवित अवस्था में लोगों को मिल गया ,यदि दवाई आदी से सेवा किया जाता तो भाभी जीवित रह सकती थी, हुआ यह कि किसी भी तरह जब चिता में बन्धन जल गया तो जीवित रहने की अति ईच्छा के कारण नजर बचा कर उस झाडी में छुप गई , नारी अत्याचार के इस विभत्स्य रूप को राजा राम मोहन राय को दिखाने की उत्कण्ठ ईच्छा आज भाभी को जीवित रखा था ,पर मनुष्य के नाम से समाज के राक्षसों ने उस झाडी से अर्धमूर्छित भाभी को खिंच कर निकाला और फिर से चिता जला कार उसमें जला दिया .
कुछ समय पश्चात राजा राममोहन राय विदेश से वापस आते हैं,अपने कमरे में जाते ही भाभी द्वारा लिखा उस पत्र को पढ कर उन्हें कैसा लगा होगा इसकी कल्पना करना भी कठीन हैं ,मन हाहाकार कर उठा,दू:ख से , पागलों की भॉती जब यह पता लगा कि उस पत्र में मात्र यह लिखा कि देवर जी ! यदि आप यहॉं होते तो मेरे साथ यह दुर्गति कदापी न हुआ होता .....! चिता से सम्बंधित घटनाओं को सुन कर समाज के ठेकेदारों के खिलाफ आक्रोश भर चुका था ,उसी दिन घर में रखा बन्दुक लेकर गॉंव वालों को ललकारते हुए निकल पडें ,पता नहीं कितने घायल हुए होंगे या कितने मर खप गए ,जब आक्रोश थोडी सी कम हुई तो अंग्रेस वाईसराय से मिल कर यह कानून बनाने के लिए दबाव डाला कि सति प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया जाए ,वाईसराय ने अविलम्ब इस कृत को गैर कानूनी घोषित किया ,तब से आज तक सति प्रथा गैर कानूनी हैं ,आज सति होने की बात कभी कभार सुनने को मिल जाता हैं पर किसी का हिम्मत नहीं कि जोर जबरदस्ति किसी महिला को सति बनने के लिए मजबूर कर सकें । इस देश में आज भी सति प्रथा जैसे एक अमानवीय प्रथा चली आ रही हैं वह हैं जाति प्रथा ,जाति प्रथा इस देश को घुन की तरह बरबाद कर रही हैं हम इसे कानूनी रूप से अमान्य तो कर दिया हैं पर आज भी समाज में इसकी अस्तित्व इतनी गहन हैं कि सारे कानूनों को ठेंगा दिखा कर इसे जाति के ठेकेदारों ने जीवित रखा हुआ हैं ,देश के नेताओं को इसी जाति के आधार पर व्होट मिलता हैं अत: देश जाए भाड में उन्हें सत्ता और धन मिलना चाहिए , क्या इसे खत्म करने के लिए किसी राजा राममोहन राय की आवश्यकता है ?

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