गुरुवार, 21 मई 2009

धर्म आत्म ज्ञान हैं- मजहब नहीं

अध्यात्मिक ज्ञान के लिए भारत वर्ष का नाम अग्रणी माना जाता हैं,एक ओर इस ज्ञान द्वारा हमें प्रसिद्धी मिलती हैं दूसरी ओर हम पाखण्डपन में भी आगे हैं । पाखण्ड के नाम से हमारी अध्यात्मिक ज्ञान का पूर्ण दोहन नहीं हो पाता ,जिसके कारण हम देश और दूनियॉं में अपमानित होते रहते है ,भूत-प्रेतों का देश डाईन-चुडैल ,तंत्र-मंत्र,जादू-टोना-टोटका ,और अगिनत बीना हाथ पैर के परम्पराओं के नाम से हम आज भी जाने जाते हैं , जिन्हें देखने से तो ऐसा लगता हैं कि वास्तव में इस तरह की परम्परओं को सति प्रथा जैसे कुचल दिया जाना चाहिए ,परन्तु कुछ परम्परा तो सभ्य कहलाने वालों से दो कदम आगे की हैं । बस्तर के आदिवासीयों में विशेश करके गोंड जनजातिओं में घोटूल प्रथा का प्रचलन हैं, भले ही आज उसका स्वरूप कुछ बदला बदला सा दिखेगा ,परन्तु विशुद्ध रूप से यह प्रथा नर नारी भेद भाव से कोषों दूर मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत , बचपन के खेल खेल में कब एक दूसरे के प्रति आकर्षण भाव से जीवन साथी के रूप में परिविर्रत हो जाता हैं और पता भी नहीं लगता , पवित्र भाव से जीवन चलाने की नई जिम्मेदारी खुशी खुशी से उठा कर सफल सामाजिक और पारिवारिक बन्धन में बन्ध जाने की ऐसी प्रथा दुनियॉं में विरले ही कही देखने सुनने को मिलेगा । आज भी अनेक प्रथा- परम्पराओं से हम अपने ही देश में अनभिज्ञ हैं । कुछ गलत परम्पराएं और प्रथा देश में विद्यमान हैं उसे तो तत्काल अन्त कर देना चाहिए ,गलत प्रथा को इसलिए बंद नहीं किया जाता क्योंकि यदि सम्बंधित
समाज के लोग नराज न हो जाए और व्होट के समय सुधार वादी दल को व्होट न दे , इस भय से सुधार का काम देश मे नही के बराबर हो रहा हैं । हर प्रथा अच्छा और हर प्रथा खराब दोनों नहीं हैं । जनजातियों में जडीबुटियों द्वारा ईलाज करने का जो परम्परा जारी हैं वर्तमान में इसमें भी कुछ कमी आई हैं फिर भी जडीबुटियों की खोज होना आवश्यक हैं ,इन जडिबुटियों में रोग नाशक का कमाल की गुण विद्यमान हैं।अब प्रश्न उठता हैं कि क्या वास्तव में हम अजीब देश में निवास करते हैं ? मुझे तो लगता हैं कि यही अजुबा ही हमारी धरोहर हैं ।अध्यात्मिक ज्ञान मजहबी ज्ञान नहीं,साम्प्रदायिकता और धर्म में कोई मेल नहीं हो सकता हैं ,एक गीत में यह गाया गया कि `मजहब नहीं सिखाता हमें, आपस मे बैर करना´ पर यह गीत किस भाव से गाया गया इस पर चर्चा करने से अधिक महत्वपुर्ण बात यह होगी कि हम धर्म के बार मे ज्ञान ले । धर्म एक आग के समान हैं दूनियॉ के कहीं भी आग का धर्म जलाना ही हो सकता हैं ,भले ही आग का नाम अलग -अलग हो ,आग का धर्म एक ही होता हैं वह हैं जलाना और धर्म के मार्ग में आगे बढने का रास्ता भी एक ही हैं यदि साधु संतों ने रास्ता अलग अलग कहते हैं तो यह सत्य प्रतीत नहीं होता । धर्म का मार्ग तो एक ही हैं कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि धर्म के मार्ग में द्वेतवाद और अद्वेतवाद दोनों मागों से धर्म के मार्ग तय किया जा सकता हैं ।प्रश्न यह है कि आखिर धर्म क्या हैं ? हजारों वर्षों से आत्मा और परमात्मा पर अनेक विचार विमर्श किये गए हैं और यह मान लिया गया हैं कि हर जीव में आत्मा का वास होता है,ओर उस आत्मा को यदि प्राणी जान जाय तो परमात्मा को जानने मे कोई कठिनाई नहीं होती है । मानव में यह आत्मा कहा निवास करता है यह एक कठीन सवाल भले ही हो, पर शरीर में कहीं न कहीं आत्मा का वास हैं । एक मनुष्य जब जीवित रहता हैं तो वह कहता हैं कि यह शरीर मेरा हैं ,यह हाथ भी मेरी हैं यह धन सम्पत्ति पर भी मेरा ही अधिकार है । अब यदि उस मनुष्य का मृत्यु हो जाए तो शरीर पर दावा करने वाले कोई नहीं होता ,वह शव बोलता नहीं कि यह हाथ मेरा हैं, यह सम्पत्ति मेरा हैं, यह मेरी पत्नी है, यह बच्चे मेरे हैं आदी ,अब कौन शरीर के भितर अधिकार जता रहा था ,और मृत्यु के पश्चात अधिकार जताने वाला कहॉं चला गया ? यही विचार ही आध्यात्मिकता का मूल हैं इसे जानने के लिए मात्र एक ही रास्ता हैं कि आत्मारूपी उस अधिकारी को जाना जाय । पूजा-पाठ ,मन्दिर -मस्जिद ,आदी में चिन्तन तो किया जा सकता हैं पर यदि वास्वत में आत्मा परमात्मा सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करना हैं तो शरीर के अधिकारी को शरीर के भितर ही खोजना होगा, सब कुछ जानने के पश्चात भी हम बहारी दूनियॉं में ईश्वर,भगवान अल्लाह ,यशु,आदी को ढुढते फिरते हैं यदि मात्र शरीर रहस्य को ही लोग जानने का प्रयत्न करें तो देश में मजहबी जूनुन एवं साम्प्रदायिकता की भावना का अन्त हो जाय ।जब शरीर में ही आत्मा का वास हैं और आत्मा को जानने का शरीर ही एक मात्र रास्ता हैं एवं आत्मारूपी परमात्मा ही इस दुनियॉं का संचालन कर्ता हैं जिसे कुछ भी नाम दे दें पर हम एक ही स्थान में पहूंचेंगें वह हैं आत्मज्ञान ।आत्मज्ञानी हमेशा स्वर्ग में ही विचरण करता हैं, उसे बाहरी दूनियॉ के स्वर्ग से कोई मतलब नहीं होता, वह तो मुक्त होकर इस दुनियॉं में विचरण करता हैं ।अत: भ्रम में जीनेवाले नरक और चेतनशील प्राणी हमेशा स्वर्ग में ही वास करता हैं ।स्वर्ग और नरक सब कुछ यही हैं हम बाहरी दुनिया के भ्रम में इस अमूल्य जीवन को व्यार्थ ही गवां देते हैं और झुठी आडम्बर और छलवा में फंस कर आत्मज्ञान के लिए यहॉं -वहॉं मारे मारे फिरते हैं , अन्त में ``अब पछतावे क्या होत, जब चिडियॉं चुग गई खेत´´ वाली कहावत चरितार्थ होता हैं ।

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