शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

रंजना जी ! राष्ट्रभाषा ओर राष्ट्रीयता दोनों समृद्धिशाली जरुरी हैं ---

अब रंजना जी से भी कुछ वार्तालाप करने की चाह हैं । आपने समीर जी के बारे में लिखने पर, कुछ खास अन्दाज में मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित कर दिया , एक बात तो साफ हैं कि भारत वर्ष
में हिन्दी के प्रति एक अलग ही मान सम्मान हैं ।
मैं समीर जी के टिप्पणी के लिए कतई नराज नहीं हूँ , ओर न ही समीर जी से असमत हूँ ,मुझे मात्र लकीर की बात पर भ्रम हो सकता हैं । यदि दूसरे से आगे बढना हो तो अपनी लकीर इतनी बढा दो, जिससे कि दूसरे की लकीर अपने आप बौना दिखने लगे,लकीर मिटाने की आवश्यकता नहीं हैं । अब इसी बात पर सारी बबाल खड़ी हो गई क्यूकि मैं लकीर मिटाने पर भी विश्वास करता हूँ ,समृद्धि के लिए लकीर मिटाने की खेल बहुत पुरानी हैं ।

बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती हैं ।
ज्ञान और भाषा में बहुत अन्तर हैं , अनेक भाषाओँ का ज्ञाता ,ज्ञानी होगा यह आवश्यक नहीं और ज्ञानी अनेक भाषाओँ का ज्ञाता होगा यह भी जरूरी नहीं हैं ।

यदि मूक ज्ञानी हो तो अनेक चमत्कारिक कार्य कर सकता हैं । जिस भाषा के कारण हमेशा गुलामी का अहसास होता हो , वह कितनी ही समृद्धशाली क्यों न हो उससे दूर रहना ही हितकर हैं । अब यदि गुंडों के हाथ में ए के 47 दे दिया जाए तो उसका उपयोग क्या होगा ? मुझे यदि मौका मिले तो मैं देश के सभी को अपनी -अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा ग्रहण के लिए प्रोत्साहित करूंगा । बच्चों को तो कतई अन्य भाषा से शिक्षा देना उचित नहीं हैं ।

सरलता से शिक्षा पाने का अधिकार बच्चों को हैं ,हम अन्य भाषाओँ को बचपन से उन पर लादते हैं, जिससे बच्चों का नैषार्गिक विकास रूक जाता हैं । वैज्ञानिक शोध से पता चला हैं कि अन्य भाषा से शिक्षा पाने वाले बच्चों को छ: गुणी अधिक मानसीक परिश्रम करना पड़ता हैं । एक बात और हैं कि हिन्दी इस देश के किसी की मातृ भाषा भी नहीं हैं ,परन्तु आज देश के प्राय: सभी हिन्दी समझते और बोलते भी हैं ।
देश के उ।प्र, बिहार ,में तो भोजपुरी, अंगिका , मागधी , मैथली आदी बोली जाती हैं, जिसे हिन्दी भाषी सरलता से समझ जाते हैं । हिन्दी एक सम्पर्क भाषा होने के कारण, मैं इसे गर्व के साथ अपनाने का निवेदन करता हूँ ।

आज गली -गली में जिस तरह कुकुर मुत्ते की तरह अंग्रेजी माध्यम के स्कुल खुलते जा रहे हैं और उसे चलाने वाले कोई बहुत विद्वान नहीं होते, वे तो मात्र देश के मानसीक गुलामी का फ़ायदा उठा कर शैक्षणिक व्यपार में लिप्त हैं, अत: ऐसे कुप्रयास का तो विरोध करना ही हैं , जो लकीर को मिटाने के समान होगा । इसी बात को मैं अपनी तरिके से निवेदन करना चाहता हूँ । बड़े होकर जिसे अंग्रेजी भाषी देश में जाना हो, वे अंग्रेजी सीखे ,जो चीन जाना चाहते हैं वे चाईनीज सीखे ,रूस जाने वाले रूसी सीखे ,अरब देश में अरबी सीख कर जाए, कोई मनाही नहीं है।

आपको बता दूँ कि मैं प्रतिक्रिया वादी नहीं हूँ ,दिल की गहराई से जो आवाज निकलती हैं उसे बाटंने का प्रयत्न करना चाहता हूँ ।
राष्ट्र को समृद्धिशाली बनाने के लिए ,राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीयता को समृद्धि बनाना आवश्यक हैं ।

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